शुक्रवार, 10 जुलाई 2009
गुरुवार, 9 जुलाई 2009
.मोठ्या..... .................. कालावधी नंतर जालना येथे बाहेर गावचे नाटक सदर झाले हो ......................................................... अतुल पेठे यांचे जालना येथील प्रयत्न खरो खरीच प्रशंसनीय आहेत , प्रायोगिक रंगभूमि साठी कार्य करणार्या कलावंताना मंच वर स्थान देनार्र्यांची संख्या रोडावतअसताना त्यांचा धाड्शी उपक्रम अनुकरणीय आहे ,,,,,,,,,,,,,,, त्यांच्या या कार्याला जालना रंगमंच तसेच जालना च्या सर्व रंगकर्मीं च्या वतीने अभिनन्दन ,,,,,, मराठी नाट्य परिषदे ला ही ,,,,,,,,,, त्याना जालना येथे निमंत्रित केल्या बद्दल धन्यवाद ,,,,,,,,,,,,,,संजय टिकारिया
मंगलवार, 7 जुलाई 2009
सी .टी ऍम के गुजराती विद्यालय के छात्र
सोमवार, 6 जुलाई 2009
• Water
• Bucket with a handle
• A Strong Arm Can you keep water inside a bucket if you turn it upside down? Try this experiment to see if you can keep water inside the bucket without spilling it.
Steps:
1. Fill the bucket three quarters of the way with water.
2. Take the bucket by the handle and start spinning it around at your side from the ground, up to the sky, turning your arm behind you as the bucket makes it way back down towards the ground.
3. Keep the speed and motion of rotation the same.
What happens? Does the water stay in the bucket or does it spill out of the bucket?
If you keep the speed up and a smooth motion of the rotation going around with your arm, the water will stay inside the bucket. This is due to the force of gravity pulling the water towards the center of the earth as the bucket heads down and as the bucket of water goes up towards the sky the motion (or direction) of the water is forced to stay inside the bucket (the wall and bottom) as it can not escape from inside the bucket.
रविवार, 5 जुलाई 2009
बुधवार, 1 जुलाई 2009
जल का घोड़ा दरियाई घोड़ा
दरियाई घोड़े को अधिकांश लोगों ने सरकसों और चिड़ियाघरों में देखा होगा। यह विशाल और गोलमटोल प्राणी केवल अफ्रीका में पाया जाता है। हालांकि उसके नाम के साथ घोड़ा शब्द जुड़ गया है, पर उसका घोड़ों से कोई संबंध नहीं है। दरियाई घोड़ा उसके अंग्रेजी नाम हिप्पो (हिप्पोपोटामस का संक्षिप्त रूप) से भी जाना जाता है। "हिप्पोपोटामस" शब्द का अर्थ भी "वाटर होर्स" यानी "जल का घोड़ा" ही है। असल में दरियाई घोड़ा सूअरों का दूर का रिश्तेदार है।
उसे आसानी से विश्व का दूसरा सबसे भारी स्थलजीवी स्तनी कहा जा सकता है। वह 14 फुट लंबा, 5 फुट ऊंचा और 4 टन भारी होता है। उसका विशाल शरीर स्तंभ जैसे और ठिंगने पैरों पर टिका होता है। पैरों के सिरे पर हाथी के पैरों के जैसे चौड़े नाखून होते हैं। आंखें सपाट सिर पर ऊपर की ओर उभरी रहती हैं। कान छोटे होते हैं। शरीर पर बाल बहुत कम होते हैं, केवल पूंछ के सिरे पर और होंठों और कान के आसपास बाल होते हैं। चमड़ी के नीचे चर्बी की एक मोटी परत होती है जो चमड़ी पर मौजूद रंध्रों से गुलाबी रंग के वसायुक्त तरल के रूप में चूती रहती है। इससे चमड़ी गीली एवं स्वस्थ रहती है। दरियाई घोड़े की चमड़ी खूब सख्त होती है। पारंपरिक विधियों से उसे कमाने के लिए छह वर्ष लगता है। ठीक प्रकार से तैयार किए जाने पर वह २ इंच मोटी और चट्टान की तरह मजबूत हो जाती है। हीरा चमकाने में उसका उपयोग होता है।
दरियाई घोड़े का मुंह विशाल एवं गुफानुमा होता है। उसमें खूब लंबे रदनक दंत होते हैं। चूंकि वे उम्र भर बढ़ते रहते हैं, वे आसानी से 2.5 फुट और कभी-कभी 5 फुट लंबे हो जाते हैं। निचले जबड़े के रदनक दंत अधिक लंबे होते हैं। ये दंत हाथीदांत से भी ज्यादा महंगे होते हैं क्योंकि वे पुराने होने पर हाथीदांत के समान पीले नहीं पड़ते।
यद्यपि दरियाई घोड़े का अधिकांश समय पानी में बीतता है, फिर भी उसका शरीर उस हद तक जलजीवन के लिए अनुकूलित नहीं हुआ है जिस हद तक ऊद, सील, ह्वेल आदि स्तनियों का। पानी में अधिक तेजी से तैरना या 5 मिनट से अधिक समय के लिए जलमग्न रहना उसके लिए संभव नहीं है। उसका शरीर तेज तैरने के लिए नहीं वरन गुब्बारे की तरह पानी में बिना डूबे उठे रहने के लिए बना होता है। वह तेज प्रवाह वाले पानी में टिक नहीं पाता और बह जाता है। इसीलिए वह झील-तालाबों और धीमी गति से बहने वाली चौड़ी मैदानी नदियों में रहना पसंद करता है। चार-पांच फुट गहरा पानी उसके लिए सर्वाधिक अनुकूल होता है।
दरियाई घोड़े की सुनने एवं देखने की शक्ति विकसित होती है। उसकी सूंघने की शक्ति भी अच्छी होती है। सुबह और देर शाम को वह खूब जोर से दहाड़ उठता है, जो दूर-दूर तक सुनाई देता है। अफ्रीका के जंगलों की सबसे डरावनी आवाजों में उसके दहाड़ने की आवाज की गिनती होती है। दरियाई घोड़े की आयु 35-50 वर्ष होती है।
दरियाई घोड़ा अधिकांश समय पानी में ही रहता है, पर घास चरने वह जमीन पर आता है, सामान्यतः रात को। घास की तलाश में वह 20-25 किलोमीटर घूम आता है पर हमेशा पानी के पास ही रहता है। भारी भरकम होते हुए भी वह ४५ किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ सकता है। दिन को वह पानी में पड़े-पड़े सुस्ताता है। ऐसे सुस्ताते समय पानी के बाहर उसकी आंखें, नाक और पीठ का कुछ हिस्सा ही दिखाई देता है।
दरियाई घोड़ा समूहचारी प्राणी है और 20-200 सदस्यों के झुंडों में रहता है। झुंड का संचालन एक बूढ़ी मादा करती है। हर झुंड का एक निश्चित क्षेत्र होता है, जिसके केंद्रीय हिस्से में मादाएं बच्चों को जनकर उन्हें बड़ा करती हैं। उनकी यह बालवाड़ी सामान्यतः नदी के मध्य स्थित छोटे टापुओं में होती है। वहां नरों को प्रवेश करने नहीं दिया जाता। यदि वे घुसने की कोशिश करें तो मादाएं मिलकर उसे बाहर खदेड़ देती हैं। नर इस बालवाड़ी के चारों ओर अपना क्षेत्र बना लेते हैं, शक्तिशाली नर बालवाड़ी के एकदम पास, ताकि वे मादाओं के सतत संपर्क में रह सकें, और कमजोर और छोटे नर बालवाड़ी से दूर।
नवजात बच्चा 3 फुट लंबा, डेढ़ फुट ऊंचा और 25 किलो भारी होता है। जन्म सामान्यतः जमीन पर ही होता है। जन्म से पहले मादा घास को पैरों से रौंदकर बिस्तर सा बना लेती है। पैदा होने के पांच मिनट में ही बच्चा चल-फिर और तैर सकता है। मादा बच्चे को चलने, तैरने, आहार खोजने और नरों से दूर रहने का प्रशिक्षण देती है। बच्चे अपनी मां के साथ साए के समान लगे रहते हैं। मादा एक कठोर शिक्षक होती है और बच्चा उसकी बात न माने तो उसे वह कड़ी सजा देती है। वह अपने विशाल सिर से उसे ठोकर लगाती है जिससे बच्चा चारों खाने चित्त होकर जमीन पर गिर पड़ता है। कभी-कभी वह अपने रदनक दंतों से बच्चे पर घाव भी करती है। बच्चा जब अपना विरोध भूल कर आत्मसमर्पण कर देता है, तब मां उसे चाटकर और चूमकर प्यार करती है।
बच्चों की देखभाल झुंड की सभी मादाएं मिलकर करती हैं। जब मां चरने जाती है, तब बाकी मादाएं उसके बच्चे को संभाल लेती हैं। बच्चा अन्य हमउम्र बच्चों के साथ खेलता रहता है। नर और मादा बच्चे अलग-अलग खेलते हैं। उनके खेल भी अलग-अलग होते हैं। मादाएं पानी में छिपा-छिपी खेलती हैं, और नर आपस में झूठ-मूठ की लड़ाई लड़ते हैं।
नर बच्चे थोड़े बड़े होने पर बालवाड़ी से बाहर निकाल दिए जाते हैं। वे बालवाड़ी से काफी दूर, अपने झुंड के क्षेत्र की लगभग सीमा में, अपना क्षेत्र स्थापित करते हैं। वे निरंतर मादाओं के निकट आने की कोशिश करते हैं, ताकि वे उनके साथ मैथुन कर सकें, पर बड़े नर उन्हें ऐसा करने नहीं देते। छोटे नरों को मादाओं से समागम करने के लिए बड़े नरों से बार-बार युद्ध करना और उन्हें हराना होता है। इस व्यवस्था के कारण झुंड के सबसे बड़े एवं शक्तिशाली नर ही मादाओं से समागम कर पाते हैं, जिससे इस जीव की नस्ल मजबूत रहती है।
पानी में लेटे-लेटे दरियाई घोड़े बार-बार जंभाई लेते हैं और ऐसा करते हुए अपने मुंह को पूरा खोलकर अपने बड़े-बड़े रदनक दंतों का प्रदर्शन करते हैं। यह अन्य नरों को लड़ाई का निमंत्रण होता है। लड़ते समय दरियाई घोड़े पानी से काफी बाहर उठ आकर अपने विस्फारित मुंह के रदनक दंतों से प्रतिद्वंद्वी पर घातक प्रहार करते हैं। इससे उसके शरीर पर बड़े-बड़े घाव हो जाते हैं और वह दर्द से चीख उठता है। पर ये घाव जल्द ठीक हो जाते हैं। लड़ाई का मक्सद प्रतिद्वंद्वी के आगे के एक पैर को तोड़ना होता है जिससे वह शीघ्र मर जाता है क्योंकि लंगड़ा होने पर वह आहार खोजने जमीन पर नहीं जा पाता और भूख से मर जाता है। जब दो नर भिड़ते हैं, उनका युद्ध दो घंटे से भी ज्यादा समय के लिए चलता है। लड़ते हुए वे जोर-जोर से दहाड़ भी उठते हैं। बड़े नरों का शरीर इन लड़ाइयों के निशानों से भरा होता है।
दरियाई घोड़े के कोई प्राकृतिक शत्रु नहीं हैं। कभी-कभी जमीन पर चरते समय सिंह उन पर झपट कर उनकी पीठ पर अपने नाखूनों और दांतों से घाव कर देता है, पर उन्हें मारना सिंह के लिए आसान नहीं है क्योंकि उनकी मोटी खाल और चरबी की परत के कारण सिंह के दांत और नाखून उनके मर्म स्थानों तक पहुंच नहीं सकते हैं। दरियाई घोड़े का सबसे बड़ा शत्रु तो मनुष्य ही है जो उसकी खाल, दांत और मांस के लिए उसे मारता है। मनुष्यों ने अब उसके चरने के सभी स्थानों को भी कृषि के लिए अपना लिया है, जिससे इस प्राणी के रहने योग्य जगह बहुत कम रह गई है। एक समय दरियाई घोड़े समस्त अफ्रीका में पाए जाते थे, पर अब अधिकांश इलाकों से वे विलुप्त हो चुके हैं।
दरियाई घोड़ों की एक अन्य जाति भी हाल ही में खोजी गई है। वह है बौना दरियाई घोड़ा।