बुधवार, 15 सितंबर 2010



मा ...............

आज यूही बैठे बैठे आंखे भर आई हैं
कहीं से मां की याद दिल को छूने चली आई हैं
वो आंचल से उसका मुंह पोछना और भाग कर गोदी मे उठाना
रसोई से आती खुशबु आज फिर मुंह मी पानी ले आई है
बसा लिया है अपना एक नया संसार
बन गई हूं मैं खुद एक का अवतार
फिर भी न जाने क्यों आज मन उछल रहा है
बन जाऊं मै फिर से नादान्
सोचती हूं, है वो मीलों दूर बुनती कढाई अपने कमरे मे
नाक से फिसलती ऍनक की परवाह किये बिना
पर जब सुनेगी कि रो रही है उसकी बेटी
फट से कहेगी उठकर,"बस कर रोना अब तो हो गई है बडी"
फिर प्यार से ले लेगी अपनी बाहों मे मुझको
एक एह्सास दिला देगी खुदाई का इस दुनियां मे.
जाडे की नर्म धूप की तरह आगोश मे ले लिया उसने
इस ख्याल से ही रुक गये आंसू
और खिल उठी मुस्कान मेरे होठों पर

गुरुवार, 9 सितंबर 2010


अभिनय
अरे अभिनेता
तुम अभिनय को, अपने द्वारा निभाये गये पात्र को
वास्तविक न मानने लगना
तब अभिनय भी एक ऐसा नशा हो जायेगा
जो जीवन के वास्तविक रूप को हटाकर
कहीं और व्यस्त कर देता है दिमाग को
और कुछ समय के लिये
व्यक्ति जो नहीं है वह होने का भ्रम पाल लेता है।
जैसे कुछ लोग साधुता का अभिनय कर लेते हैं
वास्तविक जीवन में और
अपने को वास्तव में साधु समझने लगते हैं।
दुनिया की रंगभूमि से भागने वाले
ऐसे लोग साधुता का केवल चोगा ही पहन सकते हैं
सन्यस्त होने का केवल अभिनय ही कर सकते हैं।
अभिनेता वहाँ मंच पर अभिनय करते हैं
वे वास्तविक जीवन में रूप बदले रहते हैं
छलिया बने रहते हैं
पर छलते तो वह खुद को ही हैं।
उन्हे अगर वास्तव में संतत्व मिल गया होता
तो क्या हर चिन्ता, हर काम को
चिलम में भरे गाँजे के धुँए में उड़ाते रहते?
जब जब जिम्मेदारियों ने सिर उठाया
ये कहकर आँखें बन्द कर लीं उन्होने कि
ध्यान लगाना है, सत्य को खोजना है
ये संसार तो माया है और जीवन नश्वर है।
अपनी चिलम तो कभी भ्रम न लगी उन्हे?
गाँजे की शान्ति को तो असली मानते रहे।
अभिनेता तुम भी किसी भ्रम में अपने को मत डाल लेना
अभिनय चाहे किस भी रंग रूप का करो पर
अपने वास्तविक रूप को न भूल जाना।